लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
अध्याय 2
सूरदास लाठी टेकता
हुआ धीरे-धीरे
घर चला। रास्ते
में चलते-चलते
सोचने लगा-यह
है बड़े आदमियों
की स्वार्थपरता! पहले
कैसे हेकड़ी दिखाते
थे, मुझे कुत्तो
से भी नीचा
समझा; लेकिन ज्यों
ही मालूम हुआ
कि जमीन मेरी
है, कैसी लल्लो-चप्पो करने लगे।
इन्हें मैं अपनी
जमीन दिए देता
हूँ। पाँच रुपये
दिखाते थे, मानो
मैंने रुपये देखे
ही नहीं। पाँच
तो क्या, पाँच
सौ भी दें,
तो भी जमीन
न दूँगा। मुहल्लेवालों
को कौन मुँह
दिखाऊँगा। इनके कारखाने
के लिए बेचारी
गउएँ मारी-मारी
फिरें! ईसाइयों को तनिक
भी दया-धर्म
का विचार नहीं
होता। बस, सबको
ईसाई ही बनाते
फिरते हैं। कुछ
नहीं देना था,
तो पहले ही
दुत्कार देते। मील-भर
दौड़ाकर कह दिया,
चल हट। इन
सबों में मालूम
होता है, उसी
लड़की का स्वभाव
अच्छा है। उसी
में दया-धर्म
है। बुढ़िया तो
पूरी करकसा है,
सीधो मुँह बात
ही नहीं करती।
इतना घमंड! जैसे
यही विक्टोरिया हैं।
राम-राम, थक
गया। अभी तक
दम फूल रहा
है। ऐसा आज
तक कभी न
हुआ था कि
इतना दौड़ाकर किसी
ने कोरा जवाब
दे दिया हो।
भगवान् की यही
इच्छा होगी। मन,
इतने दु:खी
न हो। माँगना
तुम्हारा काम है,
देना दूसरों का
काम है। अपना
धान है, कोई
नहीं देता, तो
तुम्हें बुरा क्यों
लगता है? लोगों
से कह दूँ
कि साहब जमीन
माँगते थे? नहीं
सब घबरा जाएँगे।
मैंने जवाब तो
दे दिया, अब
दूसरों से कहने
का परोजन ही
क्या?
यह सोचता हुआ वह
अपने द्वार पर
आया। बहुत ही
सामान्य झोंपड़ी थी। द्वार
पर एक नीम
का वृक्ष था।
किवाड़ों की जगह
बाँस की टहनियों
की एक टट्टी
लगी हुई थी।
टट्टी हटाई। कमर
से पैसों की
छोटी-सी पोटली
निकाली, जो आज
दिन-भर की
कमाई थी। तब
झोपड़ी की छान
टटोलकर एक थैली
निकाली, जो उसके
जीवन का सर्वस्व
थी। उसमें पैसों
की पोटली बहुत
धीरे से रखी
कि किसी के
कानों में भनक
भी न पड़े।
फिर थैली को
छान में छिपाकर
वह पड़ोस के
एक घर से
आग माँग लाया।
पेड़ों के नीचे
कुछ सूखी टहनियाँ
जमाकर रखी थीं,
उनसे चूल्हा जलाया।
झोंपड़ी में हलका-सा अस्थिर
प्रकाश हुआ। कैसी
विडम्बना थी? कितना
नैराश्य-पूर्ण दारिद्रय था!
न खाट, न
बिस्तर; न बरतन,
न भाँड़े। एक
कोने में एक
मिट्टी का घड़ा
था, जिसकी आयु
का कुछ अनुमान
उस पर जमी
हुई काई से
हो सकता था।
चूल्हे के पास
हाँडी थी। एक
पुराना, चलनी की
भाँति छिद्रों से
भरा हुआ तवा,
एक छोटी-सी
कठौती और एक
लोटा। बस, यही
उस घर की
सारी संपत्ति थी।
मानव-लालसाओं का
कितना संक्षिप्त स्वरूप!
सूरदास ने आज
जितना नाज पाया
था, वह ज्यों-का-त्यों
हाँडी में डाल
दिया। कुछ जौ
थे, कुछ गेहूँ,
कुछ मटर, कुछ
चने, थोड़ी-सी
जुआर और मुट्ठीभर
चावल। ऊपर से
थोड़ा-सा नमक
डाल दिया। किसकी
रसना ने ऐसी
खिचड़ी का मजा
चखा है? उसमें
संतोष की मिठास
थी, जिससे मीठी
संसार में कोई
वस्तु नहीं। हाँडी
को चूल्हे पर
चढ़ाकर वह घर
से निकला, द्वार
पर टट्टी लगाई
और सड़क पर
जाकर एक बनिए
की दूकान से
थोड़ा-सा आटा
और एक पैसे
का गुड़ लाया।
आटे को कठौती
में गूँधा और
तब आधा घंटे
तक चूल्हे के
सामने खिचड़ी का
मधुर आलाप सुनता
रहा। उस धुंधले
प्रकाश में उसका
दुर्बल शरीर और
उसका जीर्ण वस्त्र
मनुष्य के जीवन-प्रेम का उपहास
कर रहा था।
हाँडी में कई
बार उबाल आए,
कई बार आग
बुझी। बार-बार
चूल्हा फँकते-फूँकते सूरदास
की आंखों से
पानी बहने लगता
था। ऑंखें चाहे
देख न सकें,
पर रो सकती
हैं। यहाँ तक
कि वह 'षड़रस
युक्त अवलेह तैयार
हुआ। उसने उसे
उतारकर नीचे रखा।
तब तवा चढ़ाया
और हाथों से
रोटियाँ बनाकर सेंकने लगा।
कितना ठीक अंदाज
था। रोटियाँ सब
समान थीं-न
छोटी, न बड़ी;
न सेवड़ी, न
जली हुई। तवे
से उतार-उतारकर
रोटियों को चूल्हे
में खिलाता था,
और जमीन पर
रखता जाता था।
जब रोटियाँ बन
गईं तो उसने
द्वार पर खड़े
होकर जोर से
पुकारा-'मिट्ठू, आओ बेटा,
खाना तैयार है।'
किंतु जब मिट्ठू
न आया, तो
उसने फिर द्वार
पर टट्टी लगाई,
और नायकराम के
बरामदे में जाकर
'मिट्ठू-मिट्ठू' पुकारने लगा।
मिट्ठू वहीं पड़ा
सो रहा था,
आवाज सुनकर चौंका।
बारह-तेरह वर्ष
का सुंदर हँसमुख
बालक था। भरा
हुआ शरीर, सुडौल
हाथ-पाँव। यह
सूरदास के भाई
का लड़का था।
माँ-बाप दोनों
प्लेग में मर
चुके थे। तीन
साल से उसके
पालन-पोषण का
भार सूरदास ही
पर था। वह
इस बालक को
प्राणों से भी
प्यारा समझता था। आप
चाहे फाके करे,
पर मिट्ठू को
तीन बार अवश्य
खिलाता था। आप
मटर चबाकर रह
जाता था, पर
उसे शकर और
रोटी, कभी घी
और नमक के
साथ रोटियाँ खिलाता
था। अगर कोई
भिक्षा में मिठाई
या गुड़ दे
देता, तो उसे
बड़े यत्न से
अंगोछे के कोने
में बाँध लेता
और मिट्ठू को
ही देता था।
सबसे कहता, यह
कमाई बुढ़ापे के
लिए कर रहा
हूँ। अभी तो
हाथ-पैर चलते
हैं, माँग-खाता
हूँ; जब उठ-बैठ न
सकूँगा, तो लोटा-भर पानी
कौन देगा? मिट्ठू
को सोते पाकर
गोद में उठा
लिया, और झोंपड़ी
के द्वार पर
उतारा। तब द्वार
खोला, लड़के का
मुँह धुलवाया, और
उसके सामने गुड़
और रोटियाँ रख
दीं। मिट्ठू ने
रोटियाँ देखीं, तो ठुनककर
बोला-मैं रोटी
और गुड़ न
खाऊँगा। यह कहकर
उठ खड़ा हुआ।